महामारी के बाद की चुनौतियों का चिंतन
गुरबचन जगत
इतिहास के पन्नों में बीते दो सालों का जिक्र होगा कि 21वीं सदी के पहले उत्तरार्द्ध में भारी जानी नुकसान और अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने वाली एक महामारी ने दुनिया को चपेट में लिया था। यह भी कि कैसे कुछ राष्ट्र-राज्यों ने वैज्ञानिक तौर-तरीके से स्वास्थ्य, सामाजिक सेवाओं, पुलिस, केंद्रीय बैंक और अन्य सरकारी विभागों के बेहतर समन्वय से (हालांकि सेवा-प्रदाताओं का नुकसान भी हुआ) त्रासदी से बेहतर ढंग से निपटा और लोगों की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक मुश्किलें कम कर पाए थे। लेकिन कमजोर बुनियादी ढांचे और राजनीतिक दृढ़शक्ति से विहीन अन्य देशों में महामारी ने मानवीय व आर्थिक क्षति पहुंचायी। यहां 14वीं सदी में यूरोप को चपेट में लेने वाली प्लेग महामारी का जिक्र मौजू होगा (जिसे काली मौत भी पुकारा जाता है), जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए। नतीजतन जीवन के हर क्षेत्र में गहरा असर हुआ। उदाहरणार्थ, इस काल में इंग्लैंड और फ्रांस के बीच सौ साला युद्ध जारी रहा। उस वक्त इंग्लैंड और फ्रांस के किसान विद्रोहों ने सामंतशाही को उखाड़ फेंकने का आगाज़ किया। भारी तादाद में हुई मौतों के चलते महिलाओं की भूमिका महत्ती बनी और अति पिछड़ों का सशक्तीकरण भी हुआ, क्योंकि घटी जनसंख्या के कारण जमींदारों को पहले जितनी असीमित श्रमशक्ति उपलब्ध नहीं रही। आर्थिक क्षेत्र में मंदी आई और मुद्रास्फीति बनी क्योंकि श्रमशक्ति कम होने से फसलें तैयार नहीं हुई। मौजूदा महामारी के परिणामों का आकलन बाकी है।
शुक्र है कि इस बार मृत्यु-दर प्लेग के वक्त जितनी नहीं थी। दरअसल, आज वैश्विक अर्थव्यवस्था जटिल मशीन की भांति है, जिसके कल-पुर्जों के रूप में विभिन्न राष्ट्र, आपूर्ति शृंखला और एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इसमें महामारी से बाधा पड़ी, फलत: राष्ट्रों ने आत्मनिर्भरता और संरक्षणवादी नीतियों की राह चुनी। उच्च मुद्रास्फीति की स्थिति सामने आई है और इसकी घातकता का अहसास हुआ। राष्ट्रों के लॉकडाउन की तीव्रता भिन्न रही और इसका प्रभाव मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक ताने-बाने पर पड़ा। असर अब उजागर होने लगा है।
कोविड की क्रमिक लहरों से जीवन के तमाम पहलू प्रभावित हुए हैं। कहना कठिन है अंतिम रूप से कोविड-19 से छुटकारा कब होगा या नये वेरिएंट की वापसी होगी। मेडिकल विशेषज्ञ, अनुसंधान संगठन, दवा निर्माता कंपनियां और सरकारें नाना प्रकार की चेतावनियों से भय दोहन कर रहे हैं। सबके बावजूद हमें यह नहीं पता कि कोविड वायरस कहां से आया– चीन या अमेरिका – या कुपित हुए ईश्वर ने मनुष्यों पर बिजली गिराई? सरकारी परीक्षणशालाएं, अनुसंधान संगठन और यूनिवर्सिटियों ने इस जानलेवा बीमारी से मानव जाति को बचाने को वैक्सीन विकसित करने में अपना सर्वश्रेष्ठ तुरंत झोंक दिया। इस भागीरथ प्रयास में फार्मा कंपनियों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया (हालांकि बाद में कमाया भी खूब है)। ज्यादा वैक्सीन पाने को मुल्कों में होड़ लगी, जो विकसित देशों के हिस्से मेें अधिक आया।
पिछले दो सालों में लॉकडाउन, कर्फ्यू आदि कारणों से बंद पड़े स्कूल-कॉलेज, न्यायालय, अस्पताल और मनोरंजन स्थल आदि के बंद रहने का क्या असर रहा? पहले कुछ महीनों में देखने को सूना परिदृश्य मिला और हर इंसान टापू में फंसा एकांतवासी होकर रह गया। एक-दूसरे से दूर, न किसी से मिलना-जुलना, सब पार्टियां बंद (सिवाय 10 डाउनिंग स्ट्रीट के), बाजार जाकर खरीदारी नहीं, बाहर घूमना बंद। आपसी संपर्क का एकमात्र जरिया फोन था और समय बिताने के लिए किताबें पढ़ो या टेलीविजन देखो। घरों में अजीब-सा घुटनभरा वातावरण और भावनाओं में हताशा। निस्संदेह, अलगाव मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा करता है, जिससे व्याधि और नकारात्मकता पैदा होती है। जहां कहीं गले में हल्की खराश-खांसी या फिर मामूली बुखार महसूस हुआ नहीं कि संक्रमण की आशंका पैदा हो जाती है। तमाम बड़े-बुजुर्ग व छात्र इस अहसास से गुजरे। निस्संदेह, बुढ़ापा वैसे ही एकाकीपन का दूसरा नाम है, लेकिन महामारी, तिस पर एकांतवास, इसको और गहरा देते हैं।
इस दौरान स्कूली बच्चे हमउम्र साथियों के साथ से महरूम रहे और ऑनलाइन पढ़ाई हेतु कंप्यूटर के सामने बंधने को मजबूर रहे–बचपन के सुनहरे दिनों में दो सालों की हानि की भरपाई कौन कर पाएगा? दीर्घकाल में मनोवैज्ञानिक संतुलन पर इसका क्या असर रहेगा? क्या वे पूरी तरह उबर पाएंगे, क्या ऑनलाइन पढ़ाई उस घाटे को पूरा करने के लिए काफी है, जो कक्षा में परस्पर आदान-प्रदान न होने से होता है?
तथापि, उन लाखों बच्चों का क्या जो कंप्यूटर व स्मार्टफोन के अभाव में ऑनलाइन पढ़ाई से वंचित रहे। कई बार तीन-चार बच्चों को एक ही फोन से गुजारा करना पड़ा। पूरा सिग्नल पाने को ऊंची जगहों पर चढऩा पड़ा। बच्चों को घर में खाली बैठाए रखने की बजाय कुछ गरीब अभिभावकों को मजबूरी में उनसे मजदूरी करवानी पड़ी। क्या उन्हें अपना बचपन दुबारा मिल पाएगा? वे पढ़ाई की ओर लौटेंगे? गरीब छात्रों का दो वर्षों का शिक्षा-काल भेंट चढ़ चुका है। कोई आरक्षण, मुफ्त दाल-चावल या साइकिल इत्यादि कभी भी उनकी इस खोई शिक्षा को वापस नहीं दिलवा सकेंगे। यह अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य है, जो गरीबी से लडऩे को जादुई ताकत देते हैं। वक्त की मांग है कि महामारी उपरांत राष्ट्रव्यापी प्रभावशाली शिक्षा और स्वास्थ्य ढांचा बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। लेकिन नवीनतम बजट इस आस पर पानी फेरता है क्योंकि जो बुनियादी ढांचा और उत्साह चाहिए, उसके लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं रखा गया। वही पुरानी डिस्पेंसरियां और सरकारी अस्पताल खस्ताहाल में जारी रहेंगे। हमारी विशाल आबादी की वजह से बेरोजगारी सदा चुनौती रही है, तिस पर महामारी के कुप्रबंधन से बेरोजगारी बढ़ी है। वहीं मजदूरों का वार्षिक प्रवास बेरोजगारी के चलते बहुत कम हुआ। उनके अवचेतन में लॉकडाउन की त्रासदियां जीवंत हैं। प्रवासी तब न घर के रहे न घाट के, महानगरों ने नौकरी से जवाब दिया और राज्य सरकारों के लिए वे अवांछित बन गए, जब तक पैतृक गांवों में बीमारी-मुक्त होने की तसल्ली न कर ली गयी उन्हें अंदर नहीं घुसने दिया, तब तक सडक़ें ही घर बनीं। अब कृषि-उद्योगों के पास नई नौकरियां नहीं हैं।
अलबत्ता चंद राज्यों में, विधानसभा चुनावों की वजह से कुछ को वक्ती तौर पर पैसा, भोजन और दारू मिल जाएगी। राजनेता स्वास्थ्य-रोजगार के बारे में बात नहीं कर रहे। जादूगर की तरह पिटारे में मुफ्त का माल है, जो झांसा देकर भोले मतदाता का वोट हासिल करना चाहता है। लेकिन कोई भी ऐसा ‘राष्ट्रीय आयोग’ बनाने की बात नहीं कर रहा जो यह जांच करे कि पता होने के बावजूद केंद्र-राज्य सरकारों के कोविड प्रबंधन में कोताही से, खासकर कोविड के डेल्टा वेरिएंट से बनी दूसरी लहर में, हुई मौतों की जिम्मेवारी किसकी है। नहीं जनाब, उस वक्त तो हम विश्व में खुद को सर्वश्रेष्ठ बताकर एक-दूसरे की पीठ ठोकने में व्यस्त थे और जल्द ही लोग बड़ी संख्या में मरने लगे। जो मरे उनका तो पोस्टमार्टम हुआ नहीं, लेकिन क्या सरकारों की भूमिका का भी नहीं होगा? हल तभी संभव है जब कोई समस्या को स्वीकारे, यहां तो हमने नकारने की मुद्रा अपना रखी है।
विकासशील देश को वक्त के साथ चलना पड़ता है, कुछ ने समय रहते अर्थव्यवस्था को लगने वाले झटकों का पूर्वानुमान लगा लिया या फिर इससे पार पाने के उपाय करने शुरू कर दिए हैं। उन्होंने नए नोट तब छापे जब इसकी जरूरत थी और अब इससे पैदा हुई मुद्रास्फीति को काबू करने में लगे हैं। उनकी बेरोजगारी दर पहले के मुकाबले अब निचले स्तर पर है, उनका राजनीतिक तंत्र और केंद्रीय बैंक अनेकानेक उपायों से अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने में लगे हैं। लेकिन हम कहां हैं? योजना क्या है… कृपया कोई बताएगा? हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने टिप्पणी की है : ‘कभी कहना कि हम विश्व की पांचवीं या छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं, फिर यह कह देना कि हम दूसरे देशों जितने विकसित नहीं हैं, यह बहाना और ज्यादा चलेगा नहीं…’।
क्या सरकारों से- केंद्र हो या राज्य सरकार- यह अपेक्षा करना बहुत ज्यादा है कि जिनके पास विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते अकूत आर्थिक और मानव संसाधन हैं, वे गरीबी और मानव कष्ट का हल निकालने को अपनी समयबद्ध कार्ययोजना बताएं? गरीबी इंसान की बनाई हुई है क्योंकि हमारे देश में अत्यंत अमीर और गरीब की आय के बीच जो वर्तमान में बहुत बड़ा पाट है, उसे बनने दिया गया है-यह विगत और मौजूदा सरकारों की असफलता है और यह शर्मनाक भी है। यही समय है जब नेतृत्व असमानता के ताने-बाने में सुधार की राह अपनाए।
आज, हमारी सीमाओं पर आक्रामक पड़ोसियों से पैदा खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है। पुराने गठबंधन निरंतर कमजोर पड़ रहे हैं और नए अभी दूर हैं। बेरोजगार युवाओं की विशाल संख्या आंतरिक संघर्ष को हवा देने वाले के लिए उपजाऊ जमीन है क्योंकि अतिवादी तत्व इनको आसानी से बरगला सकते हैं। हमें अपने राष्ट्र के फायदे के लिए इस मानव संसाधन को दिशा, प्रशिक्षण और रोजगार में लगाने की जरूरत है, न कि समस्या का हिस्सा बनने देना है। हमें, नए काम-धंधे शुरू करने वालों को पनपने का मौका देना होगा, अपने किसान की न्यूनतम आय सुनिश्चित करके मदद करनी है ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो पाए। हमें विश्वस्तरीय शिक्षा और स्वास्थ्य बनाने की जरूरत है। यह सब न करने पर जो होगा वह कल्पना से परे कष्टकारी है– आपको केवल करना यह है कि हमारे भौगोलिक क्षेत्र का पिछले 300 सालों के नक्शे का अध्ययन करें, असफलता का नतीजा क्या हो सकता है, इसका भान हम सबको पुन: हो जाएगा।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल,
संघ लोक सेवा आयोग अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर पुलिस के महानिदेशक रहे हैं।